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१२० अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
भावार्थ । विद्वान में इच्छा आदिक भी स्वतः नहीं होते हैं, इसमें जो कारण है उसको कहते हैं
जनकजी कहते हैं कि मैं चैतन्य-स्वरूप हैं और संपूर्ण जगत् इन्द्रजाल के तुल्य मेरी सत्ता के बल और अपनी सत्ता से रहित प्रतीत होता है। चंकि जगत की अपनी सत्ता कुछ भी नहीं है इस वास्ते मेरे को किसी पदार्थ में भी किसी प्रकार करके त्याग और ग्रहण की बुद्धि नहीं होती है। जो पूरुष जगत के पदार्थों को सत्य मानता है, उसी की उनमें ग्रहण और त्यागबुद्धि होती है ।। ५ ।। इति श्रीअष्टावक्रगीतायां सप्तमं प्रकरणं समाप्तम् ।। ७ ।।
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