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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
और शान्तचित्त और स्थिर अन्तःकरणवाला होता है, और श्रम से रहित होकर भी कर्मों से जन्य अर्थों का भोगने वाला नहीं होता है ॥ ५ ॥
मूलम् ।
नाहं देहो न मे देहो बोधोऽहमिति निश्चयी । कैवल्यमिव संप्राप्तो न स्मरत्यकृतं कृतम् ॥ ६ ॥ पदच्छेदः ।
न, अहम्, देहः, न, मे, देहः, बोधः, अहम्, इति, निश्चयी, कैवल्यम्, इव संप्राप्तः, न स्मरति, अकृतम्,
कृतम् ॥
अन्वयः ।
अहम् =मैं
देहाः शरीर
न=नहीं हूँ
देह: - देह
शब्दार्थ |
मे= मेरा
न नहीं है
बोधोऽहम् = ज्ञानस्वरूप हूँ
इति इस प्रकार
अन्वयः ।
शब्दार्थ |
कैवल्यम् = विदेह मुक्ति को
संप्राप्तः = प्राप्त होता हुआ
निश्चयी= { निश्चय करनेवाला
पुरुष
अकृतं कृतम्= { अकृत और कृत
न स्मरति= {नहीं स्मरण करता
भावार्थ ।
पूर्वोक्त साधनों करके युक्त जो ज्ञानी हैं, उनकी दशा को दिखाते हैं