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बारहवाँ प्रकरण ।
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मूलम्। कर्माऽनुष्ठानमज्ञानाद्यथैवोपरमस्तथा । बुद्धवा सम्यगिदं तत्त्वमेवमेवाहमास्थितः ॥ ६॥
पदच्छेदः । कर्माऽनुष्ठानम्, अज्ञानात्, यथा, एव उपरमः, तथा, बुद्धवा, सम्यक्, इदम्, तत्त्वम्, एव, अहम्, आस्थितः ॥ अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ। यथा जैसे
सम्यक् भली प्रकार कर्मानुष्ठानम्-कर्म का अनुष्ठान बुद्ध्वा-जान करके अज्ञानात् अज्ञान से है
अहम्=मैं तथा वैसा ही
- कर्म करने और कर्म उपरमः कर्म का त्याग
एवम् एव-२ न करने की इच्छा एव-भी है
को त्याग करके इदम् इस तत्त्व को
आस्थितः स्थित हूँ
भावार्थ । जनकजी कहते हैं कि कर्मों का अनुष्ठान अज्ञानता से होता है, अर्थात् जिसको आत्मा के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान नहीं है, वही कर्मों का अनुष्ठान स्वर्गादि फल की प्राप्ति के लिये करता है, और आत्मा के ज्ञान से ही पुरुष कर्म करने से उपराम को भी प्राप्त हो जाता है। जिसका आत्मा का साक्षात्कार हो गया है, वह न कर्म करता है, और न उनसे उपराम होता है, प्रारब्ध-वश से शरीरादिक कर्मों को