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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
अन्वयः।
शब्दार्थ।
वर्जनम् ।त्याग है
शब्दार्थ । | अन्वयः। + यत्-जो
एतैः उन सबसे आश्रमाना- आश्रम और
उत्पन्नः उत्पन्न हुए श्रमम् । अनाश्रम है
मम अपने ध्यानम्-ध्यान है
विकल्पम् विकल्प को च-और
वीक्ष्य देख करके चित्तस्वीकृत-S चित्त से स्वीकार
अहम मैं %D2 की हुई वस्तु का
एवम्=इन तीनों से रहित
आस्थितः=स्थित हुआ हूँ
भावार्थ । शिष्य कहता है कि हे गुरो ! आश्रमों के धर्मों से और उनके फलों के सम्बन्ध से भी मैं रहित हैं। अनाश्रमी जो त्गागी संन्यासी है, उनके धर्म जो दण्डादिकों का धारण करना है, उनके सम्बन्ध से भी मैं रहित हूँ और योगियों के धर्म जो धारणा ध्यानादिक हैं, उनसे भी मैं रहित हूँ, क्योंकि ये सब अज्ञानियों के लिये बने हैं, मैं इन सबका साक्षी चिद्रूप हूँ।
यः शरीरेन्द्रियादिभ्यो विभिन्नं सर्वसाक्षिणम् । पारमार्थिकविज्ञानं सुखात्मानं च स्वप्रभम् ॥ १॥ परं तत्त्वं विजानाति सोऽतिवर्णाश्रमी भवेत् ॥ २॥
जो पुरुष शरीर इन्द्रियादिकों से भिन्न और शरीरादिकों के साक्षी विज्ञान-स्वरूप, सुख-स्वरूप, स्वयंप्रकाश परम तत्त्व अपने आत्मा को जान लेता है, वह अतिवर्णाश्रमी कहलाता है। सो मैं वर्णाश्रमों से अतीत सबका साक्षी चिद्रूप हूँ ॥ ५ ॥