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अष्टावक्र-गीता भा० टो० स०
भावार्थ । प्रश्न-पूर्वोक्त निश्चय करनेवाले ज्ञानी भी तो कर्मों को करते हुए दिखाई पड़ते हैं ? उनको कर्मों का फल होगा, या नहीं ?
उत्तर-जो यथार्थ बोधवाले हैं, उनको कर्मों का फल नहीं होगा, क्योंकि प्रथम वे फल की कामना से रहित होकर कर्मों को करते हैं, दूसरे वे श्रेष्ठाचार के लिये कर्मों को करते हैं, तीसरे वे कर्मों को देह इन्द्रियादिकों के धर्म जानते हैं, अपने आत्मा का धर्म नहीं मानते हैं, चौथे अहंकार से रहित होकर वे कर्मों को करते हैं, इन्हीं चार हेतुओं करके उनको कर्मों का फल नहीं होता है।
गीता में भी कहा हैयस्य नाद्धं कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते । हत्वापि स इमांल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥ १॥
जिसका देह इन्द्रियादिकों में अहंकृतभाव नहीं है, अर्थात् मैं देह हूँ, या मेरा यह देह है, इस प्रकार की जिसका भावना नहीं है और कर्तृत्व-भोक्तत्व बुद्धि भी जिसकी लिपायमान नहीं हो सकती है, सो विद्वान् यदि प्रारब्धकर्म के वश से शरीरादिकों करके तीनों लोकों का बध भी कर देवे. तो भी उसको ऐसा करने का फल लिपायमान नहीं होता है। जो इस प्रकार निश्चय करता है कि सुख-दु:खादिक ये सब प्रारब्धकर्म के वश से जीवों को होते हैं, वह विद्वान् परिश्रम से रहित प्रारब्धवश से कर्मों को करता हुआ उनके फल के साथ लिपायमान नहीं होता है ॥ ४ ॥