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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
भावार्थ। अब द्वादशाष्टक प्रकरण का आरम्भ करते हैं
पूर्व जो गुरु ने शिष्य के प्रति ज्ञानाष्टक कहा है, उसी को अब शिष्य अपने में दिखाता है । शिष्य कहता है कि हे गुरो ! प्रथम जो शरीर के कर्म यज्ञादि हैं, उनका मैं असहन करनेवाला हुआ अर्थात् शारीरिक कर्म मेरे से सहारे नहीं गये हैं, फिर वाणी के कर्म जो निन्दा स्तुति आदिक हैं, उनका मैंने असहन किया। फिर मन के कर्म जो जपादिक हैं, उनका मैंने असहन किया अर्थात् कायिक, वाचिक
और मानसिक संपूर्ण कर्मों को त्याग करके मैं स्थित हो गया ॥ १ ॥
मूलम् । प्रीत्यभावेन शब्दादेरदृश्यत्वेन चात्मनः । विक्षेपैकाग्रहृदय एवमेवाहमास्थितः ॥ २ ॥
पदच्छेदः । प्रीत्यभावेन, शब्दादे:, अदृश्यत्वेन, च, आत्मनः, विक्षपैकाग्रहृदयः, एवम्, एव, अहम्, आस्थितः ॥ अन्वयः। __ शब्दार्थ। अन्वयः।
शब्दार्थ। शब्दादेः शब्द आदि की
विक्षेपों से एकान
|विक्षेपेकाग्रहृदयः हुआ है मन प्रीत्यभावेन-प्रीति के अभाव से
(जिसका च-और
एवम् एव-ऐसा
__ अहम् मैं आत्मनः आत्मा के अदृश्यत्वेन-अदृश्यता से
आस्थित स्थित हूँ ।
आस्थितः- सब तरफ से