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१७२ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० न्यायकारिता जाती रहेगी। इसी तरह ईश्वर भो यदि पापियों को पाप का फल जो दुःख है, उसको नहीं देगा और दया करके छोड़ देगा, तब जगत् में कोई भी दु:खी नहीं रहेगा, पर ऐसा तो नहीं देखते हैं, क्योंकि संसार में लाखों पुरुष बड़े-बड़े असाध्य रोगों करके दु:खी हैं, रात-दिन ईश्वर ! ईश्वर ! पुकारते पुकारते मर जाते हैं, और उनका दुःख दूर नहीं होता है। लाखों अकाल में अन्न बिना मर जाते हैं और जीव कर्म के फल दुःखों को भोगकर अच्छे हो जाते हैं। अनेक प्रकार के कार्य हैं, अनेक प्रकार के उनके फल हैं, बिना भोग के कर्म नहीं छूटते हैं। इन्हीं युक्तियों से सिद्ध होता है कि ईश्वर न्यायकारी है, दयालु नहीं है।
प्रश्न-फिर भक्त लोग ईश्वर की भक्ति करने के काल में क्यों कहते हैं कि हे ईश्वर ! आप दयालु हैं, कृपालु हैं और न्यायकारी है ?
उत्तर-गुणारोप्य के विना भक्ति और उपासना नहीं हो सकती है । जैसे मिथ्या कल्पी हुई मूर्ति के ध्यान करने से अर्थात् उस मूर्ति में चित्त के रोकने से चित्त में शान्ति और आनन्द होता है अर्थात् चित्त के निरोध से नित्य आत्मसूख की प्राप्ति होती है, वैसे ही मिथ्या दयालुतादिक गुणों को ईश्वर में आरोप्य करने से भी ईश्वर में प्रेम उत्पन्न होता है
और उस प्रेम से पुरुष को आनन्द होता है, उसी प्रेम का नाम भक्ति है। दयालुतादिक गुणों का आरोप्य करना निरर्थक नहीं है वास्तव में तो ईश्वर गुणातीत है । गुण माया का कार्य है, और माया के सम्बन्ध करके ईश्वर गुणों