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१७० अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
ईश्वर जीवों के कर्तृत्वपने को और कर्मों को नहीं रचता है और कर्मों के फल के संयोग को भी नहीं रचता, ये सब अनादिकाल के संस्कारों से होते हैं अर्थात् अनादिकाल से चले आते हैं, इस वास्ते ईश्वर में कोई दोष नहीं आता है ॥ १ ॥
प्रश्न-कर्म जड़ है, स्वतः फल को नहीं दे सकता है और जीव असमर्थ है वह भी अपने आप फल को नहीं भोग सकता है, तब फिर फलदाता ईश्वर में दोष क्यों नहीं आवेगा?
उत्तर-ईश्वर में दोष तब आवे, जब ईश्वर जीवों से शुभ अशुभ कर्म करावे और फिर उनको फल देवे या जीवों को उत्पन्न करके उनसे कर्म करावे, ऐसा तो नहीं है, क्योंकि प्रवाह-रूप करके सारा जगत् अनादि चला आता है, कोई भी नई वस्तु जीव या ईश्वर उत्पन्न नहीं करता है। जैसे प्रथिवी में सब वनस्पति के बीज रहते हैं, परन्तु विना सहकारी कारण सामग्री के अंकूरों को उत्पन्न नहीं कर सकते हैं, वैसे माया में सब प्रकार के पदार्थों के सूक्ष्मरूप से बीज बने रहते हैं, परन्तु विना सहकारी कारण के उत्पन्न नहीं होते हैं । जिस काल में उसकी उत्पत्ति की सामग्री जुड़ जाती है, उसी काल में वह उत्पन्न हो जाते हैं । जैसे जुदा खेतों में जुदा जुदा बीज हल जोतकर किसान बो देता है यानी किसी में चना, किसी में गेहूँ, किसी में मटर आदि बोता है, परन्तु विना तरी के वे नहीं उत्पन्न होते हैं और पानी बिना बीज के फल को नहीं दे सकते हैं। जब खेत बोया हो और समय