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ग्यारहवाँ प्रकरण ।
मूलम् ।
चिन्तया जायते दुःखं नान्यथेहेति निश्चयी । तया हीनः सुखी शान्तः सर्वत्र गलितस्पृहः ॥ ५ ॥
पदच्छेदः ।
चिन्तया, जायते, दु:खम्, न, अन्यथा, इह, इति, निश्चयी, तथा, हीन:, सुखी, शान्तः, सर्वत्र, गलितस्पृहः ||
अन्वयः ।
शब्दार्थ |
इह = इस संसार में
चिन्तया = चिन्ता से
दुःखम् = दुःख जायते = उत्पन्न होता है
अन्यथा =और प्रकार से
न=नहीं
इति = ऐसा
निश्चयी = निश्चय करनेवाला
अन्वयः ।
सुखी = सुखी और
शान्तः शान्त है
सर्वत्रगलि - _
तस्पृहः
१७५
+च=और
{
हीनः = रहित है ||
तथा=
शब्दार्थ |
सर्वत्र उसकी इच्छा
गलित है
उससे अर्थात् चिन्ता से
भावार्थ ।
प्रश्न - कर्मों को करता हुआ पुरुष उनके फल के साथ लिपायमान क्यों नहीं होता है ? जो कर्ता होता है वही भोक्ता भी अवश्य होता है ?
उत्तर- इस संसार में पुरुष को चिन्ता करने से ही दुख उत्पन्न होता है, विना चिन्ता के दुःख नहीं होता है, जो इस प्रकार निश्चय करता है, वह चिन्ता को त्याग देता है,