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अष्टावक्र- गीता भा० टी० स०
थोड़े दिनों के बाद जखम में कीड़े पड़ गये, तब भी महात्मा का चेहरा मैला न हुआ । उसी नगर में थोड़ी दूर पर मंदिर में एक और महात्मा रहते थे । उन्होंने जब उनका हाल सुना, तब एक आदमी की जबानी उन महात्मा को कहला भेजा कि भाई ! जिस मकान में आदमी रहता है, उस मकान में उसको झाडू-बुहारू देना आवश्यक होता है । जब ऐसा संदेश उनको पहुँचा, तब उन्होंने जवाब दिया कि महात्माजी से कहना कि जब आप तीर्थों में गये थे और राह में बीसों धर्मशालों में रात्रि-भर रहते गये थे, वे धर्मशाले अब गिर पड़े हैं, अब जाकर उनकी मरम्मत करिए। हमको तो शरीर रूपी धर्मशाला में आयु- रूपी रात्रि भर रहना है । वह रात्रि भी व्यतीत हो गई है । अब इस शरीर रूपी धर्मशाला की कौन मरम्मत करे। इतना कहकर फिर चुप हो गये । थोड़े दिनों के बाद उन्होंने शरीर का त्याग कर दिया, ऐसी दशा जीवन्मुक्तों की होती है ।। ६॥
मूलम् ।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तमहमेवेति
निश्चयी |
निर्विकल्प शुचिः शान्तः प्राप्ताप्राप्तविनिवृतिः ॥ ७ ॥ पदच्छेदः ।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तम् अहम् एव इति निश्चयी,
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निर्विकल्पः शुचिः शान्तः, प्राप्ताप्राप्तविनिवृतिः ॥
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