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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
भावार्थ । पहले एक वाक्य करके बन्ध के लक्षण को कहा और दूसरे वाक्य करके मुक्ति के लक्षण को कहा। अब एक ही वाक्य करके बन्ध और मोक्ष दोनों का कथन करते हैं
जब चित्त अनात्मपदार्थों में, अनात्माकारवृत्तिवाला होता है, तब भी इसको बन्ध होता है। जब चित्त विषयाकार नहीं होता है अर्थात् आसक्ति से रहित होकर सर्वत्र आत्मदृष्टिवाला होता है, तभी जीव मुक्त कहा जाता है ।
प्रश्न-आपने कहा है कि जिस काल में चित्त विषयों में आसक्त होता है, तब बन्ध होता है और जब अनासक्त होता है, तब मुक्त होता है। यदि एक ही चित्त में कालभेद करके बन्ध और मोक्ष माना जावेगा, तब मुक्ति भी अनित्य हो जावेगी ?
उत्तर-उस वाक्य का यह तात्पर्य नहीं है, जो आपने समझा है, किन्तु उसका यह तात्पर्य है कि आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के पूर्व जितने काल तक पुरुष का चित्त विचार से शून्य होकर विषयों में आसक्त रहता है, उतने काल तक जीव बन्ध में ही पड़ा रहता है । पश्चात् जब विचार करके युक्त हुआ, रचित दोष-दृष्टि करके विषयों में आसक्ति से रहित हो जाता है, और फिर विषय-वासना का बीज भी चित्त में नहीं रहता है, तब फिर वह मुक्त होकर कदापि बन्ध को नहीं प्राप्त होता है। जैसे भूजे हुए बीज में फिर अंकुर उत्पन्न करने की शक्ति नहीं रहती है, वैसे ही निर्वासनिक चित्तवाला पुरुष कभी भी जन्म को नहीं प्राप्त होता है।। ३ ।।