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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
विलक्षण और अनिर्वचनीय है । उसका कार्य जगत् भी अनिर्वचनीय है । इस वास्ते इन दोनों में तृष्णा करनी अनुचित है, क्योंकि दोनों मिथ्या हैं । मिथ्या वस्तु में मूर्ख अज्ञानी तृष्णा को करता है, ज्ञानवान् कदापि नहीं करता है ॥ ५ ॥
मूलम् । राज्यं सुताः कलत्राणि शरीराणि सुखानि च । संसक्तस्यापि नष्टानि तव जन्मनि जन्मनि ॥ ६ ॥ पदच्छेदः ।
राज्यम्, सुताः, कलत्राणि, शरीराणि सुखानि, च, संसक्तस्य, अपि, नष्टानि, तव, जन्मनि जन्मनि ।
अन्वयः ।
शब्दार्थ | अन्वयः ।
राज्यम् = राज्य
सुताः = लड़के
कलत्राणि स्त्रियाँ
शरीराणि शरीर
च=और
सुखानि = सुख संसक्तस्य = आसक्त पुरुष के
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शब्दार्थ |
नष्टानि=नष्ट हुए हैं +च=और
तब तेरे
अपि =भी
एते = ये सब
जन्मनि जन्मनि = हर एक जन्म में
नष्टानिष्ट हुए हैं ॥
भावार्थ ।
अष्टावक्रजी जगत् को असत्य रूप दिखलाते हैंहे जनक ! राजभोग और स्त्री, पुत्रादिक ये सब तो तुमको अनेक जन्मों में मिलते ही रहे हैं और नष्ट भी होते रहे हैं । क्योंकि पहले जन्मों में जो तुमको स्त्री- पुत्रादिक