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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० है, पर संसार में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है । तुमने कहा है कि कार्य अपने कारण में सत्य-रूप से रहता है, इसलिये कार्य सत्य है, सो ऐसा कथन ठीक नहीं है, क्योंकि पट के कारण तन्तु हैं, तन्तुओं के जल जाने से पट कहाँ रहता है। कारण तो उसका रहा नहीं, कारण के नाश होने से कार्य-रूप पट का भी नाश हो गया।
यदि उन्हीं जले हुए तन्तुओं से पट फिर उत्पन्न होवे, तब उस पट का प्रादुर्भाव और तिरोभाव कारण-रूपी तन्तुओं में समझा जावे, पर वह तन्तु तो रहते नहीं, तब प्रादुर्भाव तिरोभाव कहाँ रहा ।
यदि कहो कि वह पट अपने कारण-रूपी तन्तुओं के कारण जो तन्तुओं के परमाणु हैं, उनमें चला गया, तो ऐसा कथन भी नहीं बनता है, क्योंकि जब तन्तु जल जाते हैं, तब उनके परमाणु वायु के चलने से स्थानान्तर में चले जाते हैं और उन्हीं पृथिवी के परमाणुओं से कार्यान्तर बन जाते हैं अर्थात् घटादिक बन जाते हैं; क्योंकि जैसे तन्तु पृथिवी के कार्य हैं, वैसे घटादिक भी पृथिवी के कार्य हैं। पटों के जल जाने के पीछे उनकी राख से और बहुत वस्तुएँ पैदा हो सकती हैं।
यदि पट ही उस राख में तिरोभाव-रूप करके रहता, तब और वस्तु न बन सकती, उस राख से पट का ही प्रादुर्भाव होता, किन्तु ऐसा तो नहीं देखते हैं । खेत में उसी राख के डालने से घास आदि पैदा हो जाते हैं, फिर और