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ग्यारहवाँ प्रकरण। करके पदार्थ उत्पन्न होते हैं, और जीव की उपाधि जो अंत:करण है वह अल्प शरीर में स्थित है, इस वास्ते उसकी सत्ता करके शरीर के अवयव आदिक बढ़ते हैं। अल्प उपाधिवाला होने से जीव अल्पज्ञ अल्प शक्तिवाला है, और बड़ी उपाधिवाला होने से ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है, इसी कारण ईश्वर को ही लोक जगत् का कर्ता मानते हैं। वास्तव में वह कर्ता नहीं है, केवल माया उपाधि करके कर्तृत्व व्यवहार भी ईश्वर में गौण है, मुख्य नहीं है। वह वास्तव में अकर्ता है और जीव भी वास्तव में अकर्ता है।
प्रश्न-आपने पूर्व कहा था कि चेतन एक है, अब आप जीव और ईश्वर-भेद करके दो चेतन कहते हैं ?
उत्तर-वास्तव में चेतन एक ही है, परन्तु कल्पित उपाधियों के भेद से चेतन का भेद हो जाता है, हे राजन् ! अविद्यातत्कार्य-रहितः शुद्धः। अविद्या और अविद्या के कार्य से रहित जो चेतना है, उसी का नाम शुद्ध चेतन है, उसी को निर्गुणब्रह्म भी कहते हैं ।
सर्वनामरूपात्मकप्रपंचाध्यासाधिष्ठानत्वं ब्रह्मत्वम् ।
संपूर्ण नामरूपात्मक प्रपंच के अध्यास का जो अधिष्ठान होवे, उसी का नाम ब्रह्म है, उसी शुद्ध चेतन में सारा नामरूपात्मक जगत् अध्यस्त है।
माया में प्रतिबिंबित चेतन का नाम ईश्वर है, अंतःकरण में प्रतिबिंबित चेतन का नाम जीव है । माया एक है, इस वास्ते उसमें प्रतिबिंबित चेतन ईश्वर भी एक ही कहा जाता है।