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ग्यारहवाँ प्रकरण ।
१६५ उत्पन्न होते हैं और निर्विकार आत्मा से कोई भी विकार नहीं होता है।
प्रश्न-माया जड़ है, आत्मा चेतन है। केवल जड़ माया से कार्य उत्पन्न नहीं हो सकता है, और न केवल चेतन से उत्पन्न हो सकता है। क्योंकि निरवयव आत्मा से सावयव कार्य नहीं उत्पन्न हो सकता है, और न केवल जड़ माया में आप से आप विना चेतन के सम्बन्ध, कोई कार्य उत्पन्न हो सकता है। यदि होवे, तब विना ही कुलाल के आपसे आप मृत्तिका से घट उत्पन्न हो जाना चाहिए पर ऐसा तो नहीं होता है। तब आपने कैसे कहा कि स्थल-सूक्ष्मरूप कार्य सब माया से ही उत्पन्न होते हैं, चेतन से नहीं होते हैं ?
उत्तर-हे जनक ! जैसे चुम्बक पत्थर की शक्ति करके लोहे में चेष्टा होती है, चुम्बक पत्थर में नहीं होती, वैसे चेतन की सत्ता करके माया से कार्य उत्पन्न होते हैं, चेतन से नहीं होते हैं। जैसे शरीर में जीवात्मा की सत्ता से नखरोमादिक उत्पन्न होते हैं। आत्मा में नहीं होते हैं । आत्मा असंग है, निर्विकार है; शरीर विकारी और नाशी है। आत्मा नित्य है, चेतन है; शरीर जड़ है, अनित्य है; ऐसा निश्चय करनेवाला पुरुष विना परिश्रम के शान्ति को प्राप्त होता है, दूसरा नहीं होता है ॥ १ ॥
मूलम् । ईश्वरः सर्वनिर्माता नेहान्य इति निश्चयी। अन्तर्गलितसर्वाशः शान्तः क्वापि न सज्जते ॥२॥