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१६२ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
पृथिवीं धनपूर्णां चेदिमां सागरमेखलाम् । प्राप्नोति पुनरप्येष स्वर्गमिच्छति नित्यशः ॥ १॥
यदि यह संपूर्ण पृथिवी समुद्र पर्यन्त धन करके युक्त भी किसी को मिल जावे, तो भी वह नित्य ही स्वर्ग की इच्छा करता है ॥ १ ॥
न पश्यति च जन्मान्धः कामान्धो नैव पश्यति । मदोन्मत्ता न पश्यन्ति ह्यर्थी दोषं न पश्यति ॥२॥
जन्म के अन्धों को, कामातुर को, मदिरा करके उन्मत्त को, और धन के अर्थी को कुछ भी नहीं दीखता है, इसलिये हे जनक ! धनादि की इच्छा का भी त्याग ही करना विवेकी के लिये उत्तम है। क्योंकि संसार-रूपी वन में भ्रमण करते हुए पुरुष का मन धर्म, अर्थ और काम करके व्याकूल होता हुआ कभी भी शान्त नहीं होता है ।। ७ ॥
मूलम् । कृतं न कति जन्मानि कायेन मनसा गिरा। दुःखमायासदं कर्म तदद्याप्युपरम्यताम् ॥ ८ ॥
पदच्छेदः । कृतम्, न, कति; जन्मानि, कायेन, मनसा, गिरा, दुःखम्, आयासदम्, कर्म, तत्, अद्य, अपि, उपरम्यताम् ॥