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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
का निरूपण किया है । अब इस प्रकरण में विषयों की तृष्णा के त्याग का निरूपण करते हैं ।
अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! काम शत्रु है । यह काम ही सम्पूर्ण अनर्थों का मूल है और बड़ा दुर्जय है
आत्मपुराण में कहा है
कामेन विजितो ब्रह्मा कामेन विजितो हरः । कामेन विजितो विष्णुः शक्रः कामेन निर्जितः ॥ १ ॥
इन्द्र
कामदेव ही ने ब्रह्मा को जीता, विष्णु को जीता, को जीता, महादेव को जीता, अतएव सब अनर्थों का मूल कारण कामदेव ही है । धन के संग्रह और रक्षा करने में जो दुःख होता है, और उसके नाश होने में जो शोक होता है, उसका मुख्य कारण काम ही है । हे जनक ! काम का कारण जो धर्म है, उसको और सकाम कर्मों को तुम त्याग करो, क्योंकि ये सब जीवन्मुक्ति में प्रतिबन्धक हैं ।। १ ।।
मूलम् ।
स्वप्नेन्द्र जालवत्पश्य दिनानि त्रीणि पञ्च वा । मित्रक्षेत्रधनागारदारदारयादिसम्पदः ॥ २ ॥
पदच्छेदः ।
स्वप्न, इन्द्रजालवत्, पश्य, दिनानि त्रीणि, पञ्च, वा, मित्रक्षेत्रधनागारदारदायादिसम्पदः ॥
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