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बीततृष्णः- होता हुआ
१५४ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० अन्वयः। शब्दार्थ । । अन्वयः।
शब्दार्थ। यत्र यत्र-जिस जिस वस्तु में | - असाधारण वैराग्य तृष्णा इच्छा भवेत् होवे
आश्रित्य आश्रय करके तत्र-उस उस विषे
। तृष्णा-रहित संसारम् संसार को विद्धि-( तू ) जान
सुखी भव-सुखी हो ॥ वै-निश्चयपूर्वक
भावार्थ । अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! जिस-जिस प्रसिद्ध विषय में मन की तृष्णा उत्पन्न होती है, उसी उसी विषय को तुम संसार का हेतु जानो । क्योंकि विषयों की तृष्णा ही कर्म द्वारा संसार का हेतु है। यही वार्ता 'योगवाशिष्ठ' में भी लिखी है
मनोरथरथारूढं युक्तमिन्द्रियवाजिभिः । भ्राम्यत्येव जगत्कृत्स्नं तृष्णासारथिचोदितम् ॥ १॥
मनोरथ-रूपी रथ है, इन्द्रिय-रूपी घोड़े उसके आगे बँधे हैं, उसी रथ पर सारा जगत् आरूढ़ हो रहा है और तृष्णारूपी सारथि उसको भ्रमा रहा है ।। १ ।।
यथा हि शृंगगोकाले वर्धमानेन वर्धते । एवं तृष्णापि चित्तेन वर्धमानेन वर्धते ॥ २ ॥
जैसे गौ के दोनों शृंग गौ के शरीर के साथ ही बराबर बढ़ते हैं, वैसे ही तृष्णा भी चित्त के साथ ही बराबर बढ़ती है ॥ २ ॥