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नवाँ प्रकरण ।
भावार्थ। अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे शिष्य ! हजारों मनुष्यों में से किसी एक भाग्यशाली पुरुष के चित्त में वैराग्य उत्पन्न होता है। उसके जीने की और भोगने की इच्छा भी निवत्त हो जाती है। क्योंकि संसार के पदार्थों में ग्लानि और दोषदृष्टि का नाम ही वैराग्य है । जितने संसार के उत्पत्ति और नाशवाले पदार्थ हैं, सबमें दोष लगे हैं। संसार में स्त्री, पुत्र, धन और शरीर तथा इन्द्रिय आदिक सबको प्यारे हैं, और इन्हीं के सुख के लिये पुरुष अनेक अनर्थों को करता है, और ये ही सब जीवों के बन्ध के कारण हैं, इस वास्ते विना इनमें वैराग्य प्राप्त हए कदापि मोक्ष को नहीं प्राप्त होता है, इसी हेतु से प्रथम इन्हीं में दोष-दृष्टि को दिखाते हैं । 'योगवाशिष्ठ' में कहा है
गर्भे दुर्गन्धिभूयिष्ठे जठराग्निप्रदीपिते। दुःखं मयाप्तं यत्तस्मात्कनीयः कुम्भिपाकजम् ॥ १॥
अर्थात् बड़ी भारी दुर्गन्धि करके युक्त जो माता का उदर है, और जो जठराग्नि करके प्रदीप्त है, उस गर्भ में आकर जो जीव को दुःख होता है, उससे कुम्भीपाक नरक का भी दुःख कम है ।। १॥
एवं 'गर्भोपनिषद' में भी गर्भ के दुःखों का वर्णन किया है कि जिस काल में गर्भ में जीव अति दुःखी होता है, तो ईश्वर से प्रार्थना करता है कि हे प्रभो ! इस बार मैं जन्म लेकर अवश्य ही ज्ञान के साधनों को करूँगा, पर जन्म