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अन्वयः।
यथा- प्रारब्ध है
ताः सर्वाः उन सब वास
अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
पदच्छेदः । वासनाः, एव, संसारः, इति, सर्वाः, विमुञ्च, ताः, तत्त्यागः, वासनात्यागात्, स्थितिः, अद्य, तथा ॥ . शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ। वासना एव-वासनाएँ ही
तत्यागः=
...[ उसका अर्थात् संस्कार संसार:-संसार है
। का त्याग है इति-ऐसा
अद्यः ऐसा होने पर ज्ञात्वा जानकर
. [ जैसा कर्म है अर्थात् 1 नाओं को विमुञ्च-( तू ) त्याग
तथा उसके अनुसार वासना के
शरीर की स्थिति वासनात्यागात् | त्याग से
भावार्थ । प्रश्न-पूर्वोक्त युक्ति से जब पुरुष आत्मा को जान भी लेगा, तब फिर उसमें उसकी निष्ठा कैसे होवेगी ?
उत्तर-विषयों की जो अनेक वासनाएँ हैं, वही संसार है अर्थात् बंधन है । 'योगवाशिष्ठ' में कहा है
लोकवासनया जन्तोः शास्त्रवासनयापि च । देहवासनया ज्ञानं यथावन्नैव जायते ॥१॥
वासनाएं तीन प्रकार की हैं। १-लोक-वासना अर्थात् स्वर्गादि उत्तम लोक की प्राप्ति मुझको हो ।
२-दूसरी शास्त्र-वासना अर्थात् सब शास्त्रों को पढ़कर मैं ऐसा पण्डित हो जाऊँ कि मेरे तुल्य दूसरा कोई न हो।
स्थितिः- है॥