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________________ १४८ अन्वयः। यथा- प्रारब्ध है ताः सर्वाः उन सब वास अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० पदच्छेदः । वासनाः, एव, संसारः, इति, सर्वाः, विमुञ्च, ताः, तत्त्यागः, वासनात्यागात्, स्थितिः, अद्य, तथा ॥ . शब्दार्थ । | अन्वयः । शब्दार्थ। वासना एव-वासनाएँ ही तत्यागः= ...[ उसका अर्थात् संस्कार संसार:-संसार है । का त्याग है इति-ऐसा अद्यः ऐसा होने पर ज्ञात्वा जानकर . [ जैसा कर्म है अर्थात् 1 नाओं को विमुञ्च-( तू ) त्याग तथा उसके अनुसार वासना के शरीर की स्थिति वासनात्यागात् | त्याग से भावार्थ । प्रश्न-पूर्वोक्त युक्ति से जब पुरुष आत्मा को जान भी लेगा, तब फिर उसमें उसकी निष्ठा कैसे होवेगी ? उत्तर-विषयों की जो अनेक वासनाएँ हैं, वही संसार है अर्थात् बंधन है । 'योगवाशिष्ठ' में कहा है लोकवासनया जन्तोः शास्त्रवासनयापि च । देहवासनया ज्ञानं यथावन्नैव जायते ॥१॥ वासनाएं तीन प्रकार की हैं। १-लोक-वासना अर्थात् स्वर्गादि उत्तम लोक की प्राप्ति मुझको हो । २-दूसरी शास्त्र-वासना अर्थात् सब शास्त्रों को पढ़कर मैं ऐसा पण्डित हो जाऊँ कि मेरे तुल्य दूसरा कोई न हो। स्थितिः- है॥
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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