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नवा प्रकरण ।
मानें, तो एक के शरीर में जगत भर के जीवात्मा बैठे हैं, और सब जीवात्माओं के साथ उसके मन के संयोग बने रहने से उसको सर्वज्ञता होनी चाहिए, इस कारण सबको सर्वज्ञता होनी चाहिए, सो तो होती नहीं है, इसी से सिद्ध होता है कि जीवात्माओं को व्यापक मानना युक्ति-प्रमाण से विरुद्ध है, और परमाणुओं से जड़ जगत् की उत्पत्ति भी नहीं बनती है, क्योंकि निरवयव परमाणुओं का परस्पर संयोग बनता नहीं, सावयव पदार्थों का ही परस्पर संयोग बनता है, युक्ति-प्रमाणों से विरुद्ध होने के कारण नैयायिक का मत विवेकी को त्यागने-योग्य है। इसी तरह कर्म-निष्ठावाले कर्मियों के मत में भी विवेकी को श्रद्धा न करनी चाहिए, क्योंकि उनके मत में भी नाना प्रकार के झगड़े लगे हैं । कोई कर्मी होम को ही मुख्य मानते हैं, कोई मन्त्रों के जपादिकों को ही प्रधान मानते हैं, कोई कृच्छ चान्द्रायणादिक व्रतों के करने को ही धर्म मानते हैं, कोई यज्ञों में पशुओं की हिंसा को ही धर्म मानते हैं, कोई मूर्ति-पूजा को, कोई तीर्थाटन को धर्म मानते हैं। कर्मजाल इतना बड़ा भारी है कि यदि एक आदमी प्रत्येक दिन एक एक कर्म को करे, तब भी उसके सब उमर भर में सारे कर्म समाप्त नहीं होंगे और घटीयन्त्र की तरह अधोर्ध्व अर्थात् नरक, स्वर्ग का हेतु कर्म-रूपी जाल है । इसी पर कहा है
कर्मणा बध्यते जन्तुविद्यया च विमुच्यते । तस्मात्कर्म न कुर्वन्ति यत्तपः पारदर्शिनः ॥ १॥ अर्थात् कर्मों करके जीव बन्ध को प्राप्त होता है, और