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नवाँ प्रकरण। बिना ही मुक्त हो जायेंगे और शुकदेव, वामदेवादिकों की मुक्ति शास्त्रों में लिखी है, सो न होनी चाहिए, क्योंकि उनके कोई पुत्र नहीं था, इसलिये पुत्र से गति कहनेवाले वाक्य अर्थवाद-रूप हैं। लोगों ने पुत्र के सम्बन्ध से बड़े दुःख उठाये हैं। राजा दशरथ ने रामजी के वियोग में प्राणों को त्याग दिया था। प्रथम तो पुत्र के उत्पन्न होने की चिता, फिर उसके जीने की चिंता, फिर उसके विवाह और सन्तति की चिन्ता जन्म भर बनी रहती है। बड़े होने पर पिता की वृद्धावस्था में पुत्र धनादिकों को ले लेते हैं, और सेवा आदि कुछ भी नहीं करते हैं, अतएव पुत्र भी विवेकी पुरुष के लिये दु:ख के हेतु है । इसी तरह और भी जितने विषय हैं, सो सब दुःख के ही कारण हैं । 'विवेक-चूड़ामणि' में कहा है
विषयाशामहापाशात् यो विमुक्तः सुदुस्त्यजात् । स एकः कल्पते मुक्त्ये नान्ये षटशास्त्रवेदिनः ॥ १॥
अर्थात् स्त्री पुत्र धनादिक विषय महान् पाश हैं जिनका त्यागना अति कठिन है । जो पुरुष उन पाशों से रहित है, वही मुक्ति का अधिकारी है । दूसरा षट्शास्त्रों का जाननेवाला पुरुष भी मोक्ष का अधिकारी नहीं है ।। १ ॥
इसी पर अष्टावक्रजी कहते हैं कि संपूर्ण विषयवासनाओं से रहित संसार में, लाखों में कोई एक ही वैराग्यवान् जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ २ ॥
मूलम् । अनित्यं सर्वमेवेदं तापत्रितयदूषितम् । असारं निन्दितं हेयमिति निश्चित्य शाम्यति ॥ ३ ॥