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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम् । द्वयमेतद्धि जन्तूनामलंध्यं दिनरात्रिवत् ॥ १॥
सुख के अनन्तर दुःख होता है, और दुःख के अनन्तर सुख होता है; ये दोनों निश्चय करके जीव को अलंध्य हैं, याने हटाये नहीं जा सकते हैं ॥ १॥
सुखमध्ये स्थितं दुःखं दुःखमध्ये स्थितम् सुखम् । द्वयमन्योन्यसंयुक्तं प्रोच्यते जलपंकवत् ॥ २॥
सुख में दुःख, और दुःख में सुख स्थित है, अर्थात् क्षणमात्र सुख के देनेवाले विषयों से अनेक रोगादिक दु:ख उत्पन्न होते हैं, और उपवासादिक व्रतों से जिसमें दुःख होता है, फिर विषयों की प्राप्ति-रूपी सुख होता है। ये दोनों सुख दुःख ऐसे मिले हैं, जैसे पानी और कीच मिले होते हैं ।।२।।
किसी भी देहधारी से ये सुख-दु:ख किसी काल में त्यागे नहीं जा सकते हैं, इस वास्ते विवेकी पुरुष उन सुख-दुःखादिक द्वन्द्वों में भी इच्छा को त्यागकर शरीर को प्रारब्ध आश्रित छोड़ देता है ।। ४ ।।
मूलम्। नाना मतं महर्षीणां साधूनां योगिनां तथा । दृष्ट्वा निर्वेदमापन्नः को न शाम्यति मानवः॥ ५॥
पदच्छेदः । नाना, मतम्, महर्षीणाम्, साधूनाम्, योगिनाम्, तथा, दृष्ट्वा , निर्वेदम्, आपन्नः, कः, न, शाम्यति, मानवः ।।