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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
पदच्छेदः ।
अनित्यम्, सर्वम्, एव, इदम्, तापत्रितय दूषितम्, असारम्, निन्दितम् हेयम् इति निश्चित्य, शाम्यति ॥
,
शब्दार्थ |
१३६
अन्वयः ।
इदम् सर्वम=यह सब ही
अनित्यम् = अनित्य है
तापत्रितय-_ / तीनों तापों से दूषितम् | दूषित है
असारम् = सार-रहित है निन्दितम् = निन्दित है
अन्वयः ।
यम् = त्यागने योग्य है
इति = ऐसा निश्चित्य-निश्चय करके
शाम्यति=
शब्दार्थ |
शान्ति को प्राप्त 1 होता है ||
भावार्थ ।
प्रश्न - ज्ञानी की सर्वत्र इच्छा के उपशम में क्या कारण है ? उत्तर- जितना कि दृष्टि का विषय-प्रपंच है, वह सब अनित्य है अर्थात् चेतन में अध्यस्त है ।
प्रश्न - यह प्रपंच कैसा है ?
उत्तर - आध्यात्मिक आदि तापों करके दूषित है । वात, पित्त, श्लेष्मादि निमित्त से जो दुःख होता है, उसका नाम आध्यात्मिक दुःख है याने काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्षा, आदि करके जो मानस दुःख है, उसी का नाम आध्यात्मिक दुःख है । और जो मनुष्य, पशु, सर्प, वृक्षादि निमित्तक दुःख है, उसका नाम आधिभौतिक दुःख है । यक्ष, राक्षस, विनायकादि निमित्तक जो दुःख है, उसका नाम आधिदैविक दुःख है । इन तीन प्रकार के दुःखों करके पुरुष सदैव संतप्त रहता है । इसी वास्ते यह सब प्रपंच असार है, तुच्छ है त्यागने