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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
भावार्थ ।
मुझ महान् समुद्र-रूपी आत्मा में जो जगत् की कल्पना है, सो भ्रम मात्र ही है । वास्तव में नहीं है, क्योंकि मेरा अनन्तस्वरूप निराकार है । निराकार से साकार की उत्पत्ति नहीं बनती है । जब कि आत्मा में जगत् की वास्तव में उत्पत्ति नहीं बनती है, तो मैं प्रपंच से रहित शान्त रूप होकर स्थित हूँ । एवं लय योगादिक भी मेरे को करना उचित नहीं हैं ।। ३ ।।
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मूलम् । नात्मा भावेषु नो भावस्तत्रानन्ते निरञ्जने । इत्यक्तोsस्पृहः शान्त एतदेवाहमास्थितः ॥ ४॥ पदच्छेदः ।
न, आत्मा, भावेषु, नो, भावः, तत्र, अनन्ते, निरञ्जने, इति, असक्त:, अस्पृहः, शान्त, एतत् एव, अहम्, आस्थितः ॥
अन्वयः ।
शब्दार्थ | अन्वयः ।
शब्दार्थ |
आत्मा-आत्मा
भावेषु = देह आदि में न=नहीं
+ च =और
भवः = देहादि
तत्र= उस
अनन्ते=अनन्त
निरञ्जने = निर्द्वन्द्व आत्मा में
नो=नहीं है
इति= इस प्रकार
असक्तः - संग-रहित
शान्तः शान्त हुआ अहम् =मैं
एतत् एव = इसी आत्मा के
आस्थितः आश्रित हूँ ॥
भावार्थ ।
आत्मा देहादिभावों में आधेय अर्थात् आश्रित रूप करके
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