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________________ अष्टावक्र गीता भा० टी० स० भावार्थ । मुझ महान् समुद्र-रूपी आत्मा में जो जगत् की कल्पना है, सो भ्रम मात्र ही है । वास्तव में नहीं है, क्योंकि मेरा अनन्तस्वरूप निराकार है । निराकार से साकार की उत्पत्ति नहीं बनती है । जब कि आत्मा में जगत् की वास्तव में उत्पत्ति नहीं बनती है, तो मैं प्रपंच से रहित शान्त रूप होकर स्थित हूँ । एवं लय योगादिक भी मेरे को करना उचित नहीं हैं ।। ३ ।। ११८ मूलम् । नात्मा भावेषु नो भावस्तत्रानन्ते निरञ्जने । इत्यक्तोsस्पृहः शान्त एतदेवाहमास्थितः ॥ ४॥ पदच्छेदः । न, आत्मा, भावेषु, नो, भावः, तत्र, अनन्ते, निरञ्जने, इति, असक्त:, अस्पृहः, शान्त, एतत् एव, अहम्, आस्थितः ॥ अन्वयः । शब्दार्थ | अन्वयः । शब्दार्थ | आत्मा-आत्मा भावेषु = देह आदि में न=नहीं + च =और भवः = देहादि तत्र= उस अनन्ते=अनन्त निरञ्जने = निर्द्वन्द्व आत्मा में नो=नहीं है इति= इस प्रकार असक्तः - संग-रहित शान्तः शान्त हुआ अहम् =मैं एतत् एव = इसी आत्मा के आस्थितः आश्रित हूँ ॥ भावार्थ । आत्मा देहादिभावों में आधेय अर्थात् आश्रित रूप करके -
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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