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सातवाँ प्रकरण।
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नहीं है, क्योंकि आत्मा व्यापक है, देहादिक सब परिच्छिन्न हैं । व्यापक, परिच्छिन्न के आश्रित नहीं होता। और आत्मा निराकार होने से देहादिकों की उपाधि भी नहीं हो सकता है, क्योंकि आत्मा सत्य है, देहादिक सब मिथ्या है । सत्य वस्तु मिथ्या वस्तु की उपाधि नहीं हो सकती है । और देह इन्द्रियादिक आत्मा की उपाधि भी नहीं हो सकते हैं, क्योंकि आत्मा अनन्त और निरञ्जन है और देहादिक अन्तवान् और नाशवान् हैं, इसी कारण आत्मा सम्बन्ध से रहित है और इच्छा आदिकों से भी रहित है एवं आत्मा शान्त स्वरूप है ॥४॥
मूलम् । अहो चिन्मात्रमेवाहमिन्द्रजालोपमं जगत् । अतो मम कथं कुत्र हेयोपादेयकल्पना ॥ ५॥
पदच्छेदः । अहो, चिन्मात्रम्, एव, अहम्, इन्द्रजालोपमम्, जगत्, अतः, मम, कथम्, कुत्र, हेयोपादेयकल्पना॥
शब्दार्थ। अहो आश्चर्य है कि
मम मेरी अहम् मैं
हेयोपादेय-_हैय और उपादेय चिन्मात्रम् चैतन्य-मात्र हूँ कल्पना । की कल्पना जगत्-संसार
कथम्-क्योंकर इन्द्रजालापन तरह है
च और अतः इसलिये
कुत्र-किसमें हो ॥
अन्वयः।
शब्दार्थ ।। अन्वयः।
इन्द्रजालोपमम-१ इन्द्रजाल की