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११६ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० भ्रमती हुई नौका समुद्र को क्षुब्ध नहीं कर सकती है, वैसे मन-रूपी पवन करके इधर-उधर भ्रमती हुई विश्व-रूपी नौका भी समुद्र-रूपी आत्मा को क्षुब्ध नहीं कर सकती है ।। १॥
मूलम् । मय्यनन्तमहाम्भोधौ जगद्वीचिः स्वभावतः । उदेतु वास्तमायातु न मे वृद्धिर्न च क्षतिः ॥२॥
पदच्छेदः । मयि, अनन्तमहाम्भोधौ, जगद्वीचिः, स्वभावतः, उदेतु, वा, अस्तम्, आयातु, न, मे, वृद्धिः, न, च, क्षतिः ।। अन्वयः। शब्दार्थ । । अन्वयः ।
शब्दार्थ । मयि अनन्त- मुझ अनन्त
आयातु-प्राप्त हो महाम्भोधौ । महासमुद्र में
मे-मेरी जगद्वीचिः जगत्-रूपी कल्लोल
नम्न स्वभावतः स्वभाव से
वृद्धि वृद्धि है उदेतु-उदय हों
च और वा और चाहे
नन अस्तम्-लय को
क्षति हानि है ॥
भावार्थ । पूर्ववाले वाक्य करके जगत के व्यवहार को अनिष्टता का अभाव कहा । अब इस वाक्य करके जगत् की उत्पत्ति आदिकों को भी अनिष्टता का अभाव कथन करते हैं।