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छठा प्रकरण।
मूलम् । आकाशवदनन्तोऽहं घटवत्प्राकृतं जगत् । इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः ॥ १॥
पदच्छेदः । आकाशवत्, अनन्तः, अहम्, घटवत्, प्राकृतम्, जगत्, इति, ज्ञानम्, तथा एतस्य, न, त्यागः, न, ग्रहः, लयः ।। अन्वयः। शब्दार्थ ।। अन्वयः ।
शब्दार्थ। आकाशवत्-आकाशवत्
एतस्य इसका अहम् मैं
न त्याग-न त्याग है अनन्तः अनन्य हूँ
च-और जगत्-संसार
न ग्रहान ग्रहण है घटवत्-घटवत्
च-और प्राकृतम् प्रकृतिजन्य है
न लयः-न लय है तथा इस कारण
इति ज्ञानम्=ऐसा ज्ञान है ।
भावार्थ । शिष्य की परीक्षा के वास्ते पाँचवें प्रकरण द्वारा गुरु ने लययोग-रूप चिंतन का उपदेश किया। अब इस छठे प्रकरण में गुरु अपने अनुभव को दिखाता हुआ लयादिकों के असंभव को दिखाता है
लय चिंतन-रूप योग भी मेरे में नहीं बनता है । लय उसका होता है, जो उत्पतिवाला पदार्थ है। जिसकी उत्पत्ति