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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
ही तीनों कालों में नहीं है, उसका लय भी नहीं है । जैसे बंध्या का पुत्र और शशे के सींग की उत्पत्ति नहीं है और न उसका लय है, वैसे ही जगत् भी तीनों कालों में न उत्पन्न हुआ है, न होगा, और न वर्तमान काल में है । तब उसका लयचिंतन कैसे हो सकता है, किन्तु कदापि नहीं हो सकता है ।
प्रश्न - यदि जगत् उत्पन्न ही नहीं हुआ है, तब प्रतीत क्यों होता है ?
उत्तर- मांडूक्य कारिका में कहा है
आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तया । वितथैः सदृशाः सन्तोऽवितथा इव लक्षिताः ॥ १ ॥ स्वप्नमाये यथा इष्टे गंधर्वनगरं तथा । तथा विश्वमिदं दृष्टं वेदान्तेषु विचक्षणैः ॥ २ ॥
अर्थात् जो वस्तु उत्पत्ति से पहले नहीं है, और नाश से उत्तर भी नहीं है, वह वर्तमान काल में भी नहीं है, परन्तु मिथ्या होकर सत्य की तरह वर्तमान काल में प्रतीत होती है ॥ १ ॥
जैसे स्वप्न के हाथी-घोड़े, और इन्द्रजाली करके रचे हुए पदार्थ, और गन्धर्वनगर; ये सब विना हुए ही प्रतीत होते हैं, वैसे यह जगत् भी विना हुए ही प्रतीत होता है । ज्ञानियों ने ऐसा अनुभव करके वेदान्त - शास्त्र द्वारा देखा है कि केवल अद्वैत अनंत-स्वरूप आत्मा ही सत्य है, और सारा प्रपंच प्रतीतिमात्र ही है, वास्तव में नहीं है ।