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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
समदुःखसुखः-1 सूख जिसको
अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ। ....तुल्य है दुःख और | समजीवितः / तुल्य है जीना और
मृत्युः । मरना जिसको पूर्णः जो पूर्ण है
एवम् एव=ऐसा आशानैरा- आशा और
सन् होता हुआ श्ययोः । निराशा में
लयम् ब्रह्म-दृष्टि को समः जो बराबर है
ब्रजे(तू) प्राप्त हो ।
भावार्थ। अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! तू आत्मानंद करके पूर्ण है । दैवयोग से शरीर में उत्पन्न हए जो सुख दुःख हैं, उनमें भी तू पूर्ण है, आशा और निराशा में भी तू सम है, जीने और मरने में भी तू सम है, तू निर्विकार है, सुख दुःखादि सब अनात्मा के धर्म हैं, और मिथ्या हैं। क्योंकि इनके धर्मी जो देहादिक हैं, वे भी सव मिथ्या हैं। उत्पत्ति से पूर्व जो देहादिक नहीं थे, और नाश से उत्तर भो नहीं रहते हैं, वे बीच में भी प्रतीतिमात्र हैं। जो वस्तु उत्पत्ति से पूर्व और नाश से उत्तर न हो, वह बीच में भो वास्तविक नहीं होती है, केवल प्रतीतमात्र ही होती है। जैसे स्वप्न के पदार्थ और रज्ज विषे सादिक मिथ्या हैं, वैसे यह जगत भी मिथ्या है। वास्तव में, तीनों कालों में नहीं है, केवल ब्रह्म ही ब्रह्म है।
सर्वं खल्विदं ब्रह्म ॥ ___ यह संपूर्ण जगत् निश्चय करके ब्रह्म-रूप ही है, ऐसे चिंतन का नाम ही लयचिंतन है ॥ ४ ॥
इति श्रीअष्टावक्रगीतायां पंचमं प्रकरणं समाप्तम् ॥