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छठा प्रकरण |
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प्रश्न- अनंत-स्वरूप आत्मा का देहादिकों में निवास कैसे हो सकता है ? बड़ी वस्तु छोटी वस्तु के भीतर नहीं आ सकती है ?
उत्तर - जैसे घटमठादिक आकाश के निवास के स्थान हैं, और भेदक भी हैं, वैसे ही देहादिक भी अनंत-स्वरूप आत्मा के निवास का स्थान है, और भेदक भी है । वास्तव में तो यह जगत् मिथ्या माया का कार्य होने से मिथ्या है । इस प्रकार वेदान्त करके सिद्ध जो ज्ञान है, वही अनुभवरूप होकर जगत् के मिथ्यात्व में प्रमाण है, इस वास्ते लयचितनादिक भी जगत् के नहीं बन सकते हैं ॥ १ ॥
मूलम् । महोदधिरिवाहं स प्रपञ्चो वीचिसन्निभः ।
इति ज्ञानं तथैतस्य त्यागो न ग्रहो लयः ॥ २ ॥ पदच्छेदः ।
महोदधिः, इव, अहम्, सः प्रपञ्चः, वीचिसन्निभः, इति, ज्ञानम्, तथा, एतस्य, न, त्यागः, न, ग्रहः, लयः ॥
शब्दार्थ |
शब्दार्थ |
अन्वयः ।
अहम्=मैं
महोदधिः इव समुद्र सदृश हूँ
सः यह प्रपञ्चः संसार
वीचिसन्निभः-तरंगों के तुल्य है।
तथा इस कारण
नन्न
अन्वयः ।
एतस्यत्यगाः = इसका त्याग है
च = और
न=न
ग्रहः लयः = ग्रहण और लय है
- यह ज्ञान है अर्थात् इति ज्ञानम् = 2 इस प्रकार के विचार को ज्ञान कहते हैं ||