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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
वैसे ही मन के संकल्प से यह जगत् उत्पन्न हुआ है और मन के ही लय होने से जगत् लय हो जाता है । देवीभागवत में कहा है
शुद्धो मुक्तः सदैवात्मा न वै बध्येत कर्हिचित् । बन्धमोक्षौ मनस्संस्थौ तस्मिञ्छान्ते प्रशाम्यति ॥ १ ॥ आत्मा सदैव शुद्ध और मुक्त है, वह कदापि बंध को नहीं प्राप्त होता है बंध और मोक्ष दोनों मन के धर्म हैं । मन के शान्त होने से बंध और मोक्ष का नाम भी नहीं रहता है । आत्मा में मन के लय करने से सारा जगत् लय को प्राप्त हो जाता है ॥ २ ॥
मूलम् ।
प्रत्यक्ष मप्यवस्तुत्वाद्विश्वं नास्त्यमले त्वयि ।
रज्जुसर्प इव व्यक्तमेवमेव लयं व्रज ॥ ३ ॥ पदच्छेदः ।
प्रत्यक्षम् अपि, अवस्तुत्वात्, विश्वम्, न अस्ति, अमले, त्वयि, रज्जुसर्प, इव, व्यक्तम्, एवम्, एव, लयम्, व्रज ॥ शब्दार्थ |
शब्दार्थ |
अन्वयः ।
अन्वयः ।
व्यक्तम् = दृश्यमान विश्वम् = संसार
प्रत्यक्षम्अपि= {
प्रत्यक्ष होता हुआ भी
अवस्तुत्वात् = वास्तव में
अमले= मल रहित त्वयि = तुझ विषे
रज्जुसर्प=रज्जु सर्प
इव सदृश भी
न अस्ति नहीं है
एवम् एव = इसी लिये
लयम् = शान्ति को व्रज = ( तू ) प्राप्त हो ॥