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पाँचवाँ प्रकरण ।
१०५ आस्पद-रूप करके सम्बन्ध नहीं है । जब तू असंग है, और शुद्ध है, तब फिर तेरे विषे त्याग और ग्रहण कहाँ है, इसवास्ते अब तू देह-संघात को लय कर, अर्थात 'मैं देह हँ, या 'मेरा यह देह है'-ऐसे अहंकार को भी दूर करके अपने स्वरूप में स्थित हो ।। १ ॥
मूलम् । उदेति भवतो विश्वं वारिधेरिव बुदबुदः । इति ज्ञात्वैकमात्मानमेवमेव लयं व्रज ॥ २ ॥
पदच्छेदः। उदेति, भवतः, विश्वम्, वारिधेः, इव, बुबुदः, इति, ज्ञात्वा, एकम्, आत्मानम्, एवम्, एव, लयम्, व्रज ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ। भवतः तुझसे
एकम् एक विश्वम् संसार
आत्मानम्-आत्मा को उदेति-उत्पन्न होता है एवम् एव ऐसा इव-जैसे
ज्ञात्वा ज्ञान करके वारिधेः समुद्र से
लयम्-शान्ति को बुबुदा-बुबुद
ब्रजप्राप्त हो । इति-इस प्रकार
भावार्थ । जैसे समुद्र में अनेक बुबुदे और तरंग उत्पन्न होते हैं, फिर समुद्र में ही लय हो जाते हैं, समुद्र से भिन्न नहीं हैं,