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चौथा प्रकरण।
रहता है। तत्पद और त्वपद के लक्ष्यार्थ का भागत्याग लक्षणा करके, और महावाक्यों करके अभेदता से जो जानता है, वही अद्वैत ज्ञान है। जिसको अद्वैत ज्ञान प्राप्त है, वह विद्वान् है, वही बाधितानुवृत्ति करके सम्पूर्ण व्यवहारों को करता भी है; पर उसको किसी का भय नहीं होता है। क्योंकि उसके भय का-द्वैतज्ञान का-बाध हो गया है। इसी वार्ता को श्रुति भगवती भी कहती है
द्वितीयाद्वै भयं भवति ॥१॥ अर्थात् द्वैत से ही निश्चय करके भय होता है। उदरमन्तरं कुरुतेऽथ तस्य भयं भवति । जो थोड़ा सा भी भेद करता है, उसको भय होता है। अन्योऽसावहमन्योस्मि न स वेद यथा पशुः ।
जो अपने से ब्रह्म को भिन्न जानकर उपासना करता है, वह पशु की तरह ब्रह्म को नहीं जानता है ।
ब्रह्मवित् ब्रह्मैव भवति । ब्रह्मवित् ब्रह्मरूप ही होता है । तरति शोकमात्मवित् ।
आत्मवित् संसार-रूपी शोक से तर जाता है। इन श्रुति वाक्य से भी सिद्ध होता है कि विद्वान् को किसी दूसरे का भी भय नहीं होता है, क्योंकि उसकी दृष्टि में कोई भी दूसरा नहीं है ॥ ६ ॥
इति श्रीअष्टावक्रगीतायां चतुर्थं प्रकरणं समाप्तम् ।