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१०२ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० वाले पट का नाश भी अल्प है, वैसे ही अनादिकाल के अज्ञान के कार्य जो देहादिक हैं, उनके नाश के लिये दीर्घकाल लगता है। पूर्वोक्त युक्ति और प्रमाणों से सिद्ध होता है कि ज्ञानी के ऊपर विधि-निषेध-वाक्यों की आज्ञा नहीं है, किन्तु अज्ञानी के ऊपर ही है ॥ ५॥
मूलम् । आत्मानमद्वयं कश्चिज्जानाति जगदीश्वरम् । यद्वेत्ति तत्स कुरुते न भयं तस्य कुत्रचित् ॥ ६ ॥
पदच्छेदः । आत्मानम्, अद्वयम्, कश्चित्, जानाति, जगदीश्वरम्, यत्, वेत्ति, तत्, सः, कुरुते, न, भयम्, तस्य, कुत्रचित् ।। शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ । कश्चित् कोई एक
जानाति-जानता है आत्मा अर्थात्
करने योग्य च-और
वेत्ति जानता है जगदीश्वरम् ईश्वर को
तत्-उसको अद्वयम् अद्वैत
सम्वह कुरुते करता है
भयम्भ य उस आत्म-ज्ञानी
कुत्रचित्-कहीं
नम्नहीं है ।
भावार्थ। अद्वौत ज्ञान करके द्वैत का बाध हो जाता है । और द्वैत के वाध होने से भय का कारण अज्ञान विद्वान्' को नहीं
अन्वयः।
आत्मानम्- 1जीव को
यता जिस' कर्म को
तस्य-
को