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१०० अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
उत्तर-ये सब वाक्य अज्ञानी के प्रति हैं ज्ञानी के प्रति नहीं, ऐसा वेद में भी कहा है । तथाच श्रुतिःतस्य पुत्रा दायमुपयन्ति, सुहृदः साधुकृत्यं द्विषन्तः पापकृत्यम् १
अर्थात् जो विद्वान् शुभ अशुभ कर्मों को करते हैं, उसके द्रव्य को उसके पुत्र लेते हैं, और उसके मित्र उसके पुण्य कर्मों को लेते हैं, और उसके द्वेषी पाप कर्मों को ले लते हैं, वह आप पुण्य-पाप से रहित होकर मुक्त हो जाता है ।
लस्य तावदेव चि यावन्न विमोक्ष्ये ।
अर्थात् केवल उतना ही काल उस विद्वान् के मोक्ष में विलंब है, जितने काल तक वह प्रारब्ध-कर्म के भोग से नहीं छूटता है।
अथ संपत्स्ये। जब वह प्रारब्ध-कर्मों से छूट जाता है, तब वह शरीर-रूपी उपाधि से रहित होकर ब्रह्म से अभेद को प्राप्त हो जाता है। तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय निरञ्जनः परम साम्यमुपैति ।
शरीर त्यागते ही विद्वान् पुण्य-पाप से रहित होकर और भावी जन्म कर्म से रहित होकर ब्रह्म में लीन हो जाता है।
न तस्य प्राणः उत्क्रामन्ति ।
और उस विद्वान् के प्राण लोकान्तर में गमन नहीं करते हैं
___ अत्रैव समबलीयन्ते। इसी जगह अपने कारण में लय हो जाते हैं। इस तरह के अनेक श्रुति-वाक्य हैं, जो विद्वान् के कर्मों के फल को