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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
भावार्थ । प्रश्न-यदि ज्ञानी कर्मों को करेगा, तो उसको पुण्यपाप का भी सम्बन्ध जरूर होगा, यह कैसे हो सकता है कि वह कर्म तो करे पर उसको पुण्य-पाप का सम्बन्ध न हो ?
उत्तर-जिस विद्वान् ने दृश्यमान् सारे जगत् को अपना आत्मा जान लिया है, उसको प्रारब्धवश से कर्मों में वर्तमान को कौन वाक्य प्रवृत्त करने में वा निषेध करने में समर्थ है, किन्तु कोई भी नहीं है । 'शारीरक-भाष्य' में कहा है
अविद्यावद्विषयोः वेदः।
जैसे बन्दी-गण अर्थात् भाट लोग राजा के चरित्रों का वर्णन करते हैं, वैसे वेद भी ज्ञानवान् के चरित्रों का वर्णन करते हैं । इसी कारण ज्ञानवान् को पुण्य-पाप भी स्पर्श नहीं कर सकता है ।। ४।।
मूलम। आब्रह्मस्तम्बपर्यन्ते भूतग्रामे चतुर्विधे । विज्ञस्यैव हि सामर्थ्यमिच्छानिच्छाविवर्जने ॥ ५॥
पदच्छेदः । आब्रह्मस्तम्बपर्यन्ते, भूतग्रामे, चतुर्विधे, विज्ञस्य, एव, हि, सामर्थ्यम्, इच्छानिच्छाविवर्जने ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ । आब्रह्मस्तम्ब- ब्रह्मा से चींटी | विज्ञस्य एवज्ञानी का ही पर्यन्ते । पर्यन्त
इच्छानिच्छा इच्छा और अनिच्छा चतुर्विधे चार प्रकार के विवर्जने । के त्याग में
जीवों के समूह हि-निश्चय करके भूतग्राम में से | सामर्थ्यम् सामर्थ्य है ।