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६६ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० स्वरूप का जो यथार्थ बोध है, यही शास्त्र विचार का और गुरु के उपदेश का फल है।
जनकजी कहते हैं कि अहो ! बड़ा आश्चर्य है कि मेरे में स्थित भी संपूर्ण विश्व वास्तव में, तीनों कालों में मेरे में नहीं है-ऐसा विचार करने से मेरी भ्रान्ति दूर हो गई है ॥ १८ ॥
मूलम् । सशरीरमिदं विश्वं न किञ्चिदिति निश्चितम् । शुद्धचिन्मात्रआत्मा च तत्कस्मिन्कल्पनाऽऽधुना ॥ १९ ॥
पदच्छेदः । सशरीरम्, इदम्, विश्वम्, न, किञ्चित्, इति, निश्चितम्, शुद्धचिन्मात्रः, आत्मा, च, तत्, कस्मिन्, कल्पना, अधुना ।। अन्वयः। ___ शब्दार्थ । | अन्वयः। ___ शब्दार्थ । सशरीरम् शरीर सहित
इति=ऐसा इदम् यह
यदा-जब विश्वम् जगत्
निश्चितम्-निश्चय हुआ (कुछ नहीं है अर्थात्
तदा-तब किंचित् न% न सत् है, और न कस्मिन्-किस विषे (असत् है
अधुना=अब च-और
_J विश्व की कल्पना शुद्धचिन्मात्र शुद्ध चैतन्य-मात्र
भावार्थ । प्रश्न-रज्जु-रूप अधिष्ठान के विद्यमान रहते हुए, कभी न कभी मंद अंधकार में फिर भी सर्प का भ्रम हो
कल्पना