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दूसरा प्रकरण। सकता है, वैसे अधिष्ठान चेतन के होते हुए भो मुक्ति में कभी न कभी प्रपंच भी हो जावेगा? _उत्तर-शरीर के सहित यह विश्व किंचित् भी सत्य नहीं है, और असत्य है, किन्तु अनिर्वचनीय अज्ञान का कार्य होने से अनिर्वचनीय है । उस अनिर्वचनीय की अज्ञान की निवृत्ति होने से उसके कार्य विश्व की भी निवत्ति हो जाती है। अज्ञान ही कल्पित' विश्व का कारण था, उसके नाश हो जाने से फिर मुक्त पुरुष में विश्व उत्पन्न नहीं होता है। जैसे मंद अंधकार के दूर होने से फिर सर्प की भ्रान्ति भी नहीं होती है, वैसे प्रकाश-स्वरूप आत्मा के ज्ञान से फिर कदापि विश्व की उत्पत्ति नहीं होती है ॥ १९ ।।
मूलम् । शरीरं स्वर्गनरको बन्धमोक्षौ भयं तथा । कल्पनामात्रमेवैतत्किमे कार्य चिदात्मनः ॥ २० ॥
पदच्छेदः । शरीरम्, स्वर्गनरको, बन्धमोक्षौ, भयम्, तथा कल्पनामात्रम्, एव, एतत्, किम्, कार्यम्, चिदात्मनः ॥ शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ । एतत्-यह
एव-निःसंदेह হাহাহহাবীব
कल्पनामात्रम् कल्पना-मात्र है स्वर्गनरको स्वर्ग और नरक
मे चिदात्मनः / मुझ चैतन्य बन्धमोक्षौम्बन्ध और मोक्ष
। आत्मा को तथा और
किम क्या भयम्भ य
कार्यम् कर्तव्य है।
अन्वयः।