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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
अन्वयः।
मूलम् । यत्पदं प्रेप्सवो दीनाः शक्राद्याः सर्वदेवताः । अहो तत्र स्थितो योगी न हर्षमुपगच्छति ॥ २॥
पदच्छेदः । यत्, पदम, प्रेप्सवः, दीनाः, शक्राद्याः, सर्वदेवताः, अहो, तत्र, स्थितः, योगी, न, हर्षम्, उपगच्छति ।। शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ । यन्-जिस
स्थित स्थित होता पदम्प द को
बत हुआ भी प्रेप्सवः=इच्छा करते हुए
योगी-योगी शकाद्याः शक्रादि
हर्षम् हर्ष को सर्वदेवताः सव देवता
न उपगच्छति-नहीं प्राप्त होता है दीनाः दीन हो रहे हैं
अहो यही आश्चर्य है ॥ तत्र उस पद पर
भावार्थ । प्रश्न-संसार विषे व्यवहार में स्थित हआ भी ज्ञानी अज्ञानी के तुल्य क्यों नहीं हो सकता है ?
उत्तर-अज्ञानी को लाभ और अलाभ में सुख और दुःख होते हैं, परन्तु ज्ञानवान् को नहीं होते हैं । इसी से उनकी तुल्यता नहीं बन सकती है।
जनकजी कहते हैं कि हे गुरों ! इन्द्र से आदि लेकर सब देवता जिसे आत्मपद की प्राप्ति की इच्छा करते हुए बड़ी दीनता को प्राप्त होते हैं, और जिस पद की अप्राप्ति होने में बड़े शोक को प्राप्त होते हैं, उस आत्म-पद में स्थित हुआ