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चौथा प्रकरण । भी योगी विषय-भोग की प्राप्ति होने से, न तो वह हर्ष को प्राप्त होता है, और न विषयों के न प्राप्त होने से या नष्ट होने पर वह शोक को प्राप्त होता है। क्योंकि आत्म सुख से अधिक और सूख नहीं है, वह उसको नित्य प्राप्त है ।।२।।
मूलम् । तज्ज्ञस्य पुण्यपापाभ्यां स्पर्शी ह्यन्तन जायते । न ह्याकाशस्य धूमेन दृश्यमानाऽपि संगतिः ॥ ३ ॥
पदच्छेदः । तज्ज्ञस्य, पुण्यपापाभ्याम्, स्पर्शः, हि, अन्तः, न, जायते, न, हि, आकाशस्य, धूमेन, दृश्यमाना, अपि संगतिः । शब्दार्थ । । अन्वयः ।
शब्दार्थ । .. उस पद को जानने
हि क्योंकि तज्ज्ञस्य
आकाशस्य-आकाश का
संगतिः सम्बन्ध पुण्यपा- पुण्य और पाप दृश्यमाना देखा जाता हुआ पाभ्याम् । के साथ
अपि भी स्पर्शः सम्बन्ध
धूमेन-धूम के साथ न जायते नहीं होता है
ननहीं है। ___ भावार्थ । ज्ञानवान् विधि-वाक्यों का किङ्कर नहीं होता है, इसी वास्ते उसको पुण्य-पाप भी स्पर्श नहीं करते हैं । जिस विद्वान् ने तत्पद और त्वम्पद के अर्थ को महाकाव्यों द्वारा भोगत्यागलक्षणा करके अभेद अर्थ को निश्चय कर लिया है, उसके अन्तःकरण के धर्म जो पुण्य और पाप हैं, उनके साथ उसका
अन्वयः।
वाले के
अन्तः अन्तःकरण का