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७२ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० यह जानते हैं कि इस गुंजे के पुंज से हम सबको गरमी आ रही है। जैसे गंजा में बंदरों करके कल्पना की हई अग्नि दाह का कारण नहीं हो सकती है, वैसे ही मूर्ख अज्ञानियों करके कल्पना किये हुए खान पानादि व्यवहार भी विद्वान की हानि नहीं कर सकते हैं। क्योंकि विद्वान् वास्तव में अकर्ता और अभोक्ता है। उसकी दृष्टि में न तो देहादिक हैं, और न उनके कर्तृत्व और भोक्तृत्व धर्म हैं, किन्तु वे असंग एवं चैतन्य-स्वरूप हैं।
प्रश्न----अविवेकी विवेकियों को जीने की इच्छा क्यों होती है ?
उत्तर--जो उनके जीने की इच्छा है यही उनका बंध है, जीने की इच्छा करके ही अविवेकी पुरुष अनर्थों को करते हैं, विवेकी पुरुष नहीं करते हैं। इस वास्ते जनकजी कहते हैं कि मेरे जीने की और मरने की इच्छा भी नहीं है। क्योंकि जीने-मरने की इच्छा, ये सब अंतःकरण के धर्म हैं, मुझ असंग चैतन्य-स्वरूप आत्मा के धर्म नहीं हैं ॥ २२ ॥
मूलम् । अहो भुवनकल्लोलविचित्रीक समुत्थितम् । मय्यनन्तमहाम्भोधौ चित्तवाते समुद्यते ॥ २३ ॥
पदच्छेदः । अहो, भुवनकल्लोलैः, विचित्रः, द्राक्, समुत्थिम्, मयि, अनन्तमहाम्भोधौ, चित्तवाते, समुद्यते ।