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अन्वयः ।
अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
शब्दार्थ |
धीर:- ज्ञानी पुरुष तु=तो
भोज्यमानः = भोगता हुआ
अपि =भी
च=और
पीड्यमानः = पीड़ित होता हुआ अपि-भी
अन्वयः ।
सर्वदानित्य
केवलम् = एक आत्मानम् आत्मा को
शब्दार्थ |
पश्यन् = देखता हुआ
न तुष्यति न तो प्रश्न होता है + च=और
न कुप्यति न कोप करता है ||
भावार्थ ।
ज्ञानी को शाक और कोप भी न होना चाहिए । ज्ञानी पुरुष लोकों की दृष्टि में विषयों को भोक्ता हुआ भी, और लोकों करके निन्दित और पीड़ा को प्राप्त हुआ भी, सर्वदा सुख-दुःख के भोग से रहित केवल आत्मा को देखता हुआ न तो हर्ष को और न कोप को प्राप्त होता है । क्योंकि तोष और रोष आत्मा में नहीं रह सकते हैं । यदि ज्ञानी में भी तोष और रोष रहें, तो बड़ा आश्चर्य है ।। ९॥
मूलम् । चेष्टमानं शरीरं स्वं पश्यत्यन्यशरीरवत् । संस्तवे चापि निन्दायां कथं क्षुभ्येन्महाशयः ॥ १० ॥ पदच्छेदः ।
चेष्टमानम्, शरीरम्, स्वम्, पश्यति, अन्यशरीरवत्, संस्तवे, च, अपि, निन्दायाम्, कथम्, क्षुभ्येत्, महाशयः ॥