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तीसरा प्रकरण |
पदच्छेदः ।
अन्तस्त्यक्तकषायस्य, निर्द्वन्द्वस्य, निराशिषः, यदृच्छया, आगतः, भोग:, न, दुःखाय च तुष्टये ॥
शब्दार्थ |
अन्वयः ।
अन्वयः ।
अन्तःकरण से त्याग दिया है विषय वासना के कपाय को जिसने
अन्तस्त्यक्त
कषायस्य
+ एवं =जो
निर्द्वन्द्वस्य = द्वन्द्व से रहित है
+ तथा=जो
निराशिषः== {
आशा - रहित है, ऐसे पुरुष को
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न तुष्टये
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शब्दार्थ |
यदृच्छया = दैवयोग से
आगतः = प्राप्त हुई भोगवस्तु
न दुःखाय दुःख के लिये है ।
च=और
न संतोष के
भावार्थ |
जिस विद्वान् ने अन्तःकरण के मलों को दूर कर दिया है, वह शीत उष्णादिक द्वन्द्वों से अर्थात् शीत और उष्णजन्य सुख-दुःखादि से भी रहित है । और नष्ट हो गई हैं सम्पूर्ण विषय-वासनाएँ जिसकी, ऐसा जो समचित्त विद्वान् है, उसको दैवयोग से प्राप्त हुए जो भोग हैं, उनको प्रारब्धवश भोगता हुआ भी हर्ष और शोक को नहीं प्राप्त होता है ।। १४ ।।
इति श्री अष्टावक्रगीतायां तृतीयं प्रकरणं समाप्तम् ।