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तीसरा प्रकरण ।
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अन्वयः।
इह
इस लोक के
शब्दार्थ।। अन्वयः।
शब्दार्थ
च-और २९ । भोग विषे
मोक्ष के चाहने+च और
काम वाले पुरुष को परलोक के भोग
मोक्षात् एव=मोक्ष से ही विरक्तस्य-विरक्त
विभीषिका-भय है
आश्चर्यम् यही आश्चर्य है ।। = के विचार करने
अमुत्रविर्ष
नित्यानित्य (नित्य और अनित्य
विवेकिनः । वाले
भावार्थ। आत्मा नित्य है और शरीरादिक अनित्य हैं। इन दोनों के विवेचन करवेवाले का नाम विवेकी है। और आनन्द-रूप ब्रह्म की प्राप्ति का नाम मोक्ष है। उस मोक्ष की कामनावाले ज्ञानी को ऐसा भय हो कि असद्रप स्त्री, पुत्र और धनादिकों के साथ मेरा वियोग हो जायगा, तो महान् आश्चर्य है। क्योंकि स्वप्न में देखे हुए धन का जाग्रत् में नाश होने से मोह किसी को भी नहीं हुआ है ॥८॥
मूलम् । धीरस्तु भोज्यमानोऽपि पीड्यमानोऽपि सर्वदा । आत्मानं केवलं पश्यन्न तुष्यति न कुप्यति ॥ ९ ॥
पदच्छेदः । धीरः, तु, भोज्यमानः, अपि, पीड्यमानः, अपि, सर्वदा, आत्मानम्, केवलम्, पश्यन्, न, तुष्यति, न, कुप्यति ।।