________________
तीसरा प्रकरण ।
८७
शरीरम- शरीर को आत्मा ।
शरीरम् 1 से भिन्न
अन्वयः। शब्दार्थ। | अन्वयः।
शब्दार्थ। चेष्टमानम् चेष्टा करते हुए
सः वह स्वम् अपने
महाशयः महाशय पुरुष संस्तवे-स्तुति में
च-और अन्य शरीर की निन्दायाम अपि-निन्दा की भी
कथम् कैसे +या जो
नक्षोभ को प्राप्त पश्यति-देखता है
भावार्थ ।
अन्यशरीरवत्
तरह
क्षुभ्येत् । होवेगा॥
जैसे दूसरे का शरीर अपने आत्मा से भिन्न चेष्टा का आश्रय है, वैसे अपना शरीर भी अपने आत्मा से भिन्न चेष्टा का आश्रय है। इस प्रकार जो ज्ञानी देखता है, वह अपनी स्तुति में हर्ष को और निंदा में क्षोभ को कदापि प्राप्त नहीं होता है । यदि वह हर्ष और क्षोभ को प्राप्त होवे, तो वह ज्ञानवान् नहीं है ॥ १० ॥
मूलम् । मायामात्रमिदं विश्वं पश्यन् विगतकौतुकः । अपि सन्निहिते मृत्यौ कथं त्रस्यति धीरधीः ॥ ११॥
पदच्छेदः । मायामात्रम्, इदम्, विश्वम्, पश्यन्, विगतकौतुकः, अपि, सन्निहिते, मृत्यौ, कथम्, त्रस्यति, धीरधीः ।।