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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
से ही होती है, आत्मा के ज्ञान से नहीं होती है। क्योंकि जब आत्मा का ज्ञान होता है, तब विषयों का बाघ हो जाता है। इसमें लोक-प्रसिद्ध दष्टांत को कहते हैं-जैसे शुक्ति के अज्ञान से, और उसमें रजतभ्रम के होने से, उस रजत में लोभ हो जाता है ॥ २ ॥
मूलम् ।
विश्वं स्फुरति यत्रेदं तरंगा इव सागरे । सोऽहमस्मीति विज्ञाय कि दीन इव धावसि ॥३॥
पदच्छेदः । विश्वम्, स्फुरति, यत्र, इदम्, तरंगाः, इव, सागरे, सः, अहम्, अस्मि, इति, विज्ञाय, किम्, दीन:, इव, धावसि ।। अन्वयः। शब्दार्थ । । अग्वयः।
शब्दार्थ। जिस आत्मा-रूपी यत्र
अहम् मैं । समुद्र में
अस्मिन्हूँ इदम् यह
इति इस प्रकार विश्वम् संसार
विज्ञाय-जान करके लरंगाः तरंगों के
किम्=क्यों इव-समान स्फुरति-स्फुरण होता है
दीनःइव-दीन की तरह सः वही
धावसि-तू दौड़ता है।
भावार्थ । जैसे समुद्र में तरंगादिक अपनी सत्ता से रहित प्रतीत होते हैं