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तीसरा प्रकरण।
मूलम् । अविनाशिनमात्मानमेकं विज्ञाय तत्त्वतः । तवात्मज्ञस्य धीरस्य कथमर्थार्जने रतिः ॥ १॥
पदच्छेदः। अविनाशिनम्, आत्मानम्, एकम्, विज्ञाय, तत्त्वत:, तव, आत्माज्ञस्य, धीरस्य, कथम् अर्थार्जने, रतिः ॥ अन्वयः। ___ शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ । एकम् अद्वैत
आत्मज्ञस्य-आत्मज्ञानी अविनाशिनम् अविनाशी
धीरस्य-धीर को आत्मानम् आत्मा को
कथम्क्यों तत्वतः यथार्थ
अर्थार्जने- धन के संपादन विज्ञान जान करके
करने में तवन्तुझ
रति-प्रीति है ।
भावार्थ । जनकजी के अनुभव की परीक्षा करके अष्टावक्रजी फिर उसकी परीक्षा करते हैं
__ अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! नाश से रहित, निर्विकल्प, काल-परिच्छेद से रहित, देश-परिच्छेद से रहित, वस्तु-परिच्छेद से रहित, द्वैतभाव से रहित, चैतन्य-स्वरूप आत्मा को जान करके फिर तुझ धीर की व्यावहारिक धन